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अदब की राजधानी बनता जा रहा है गाजियाबाद : नरेश‌ शांडिल्य

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यूपी – गाजियाबाद महफ़िल ए बारादरी की अध्यक्षता कर रहे मशहूर कवि नरेश शांडिल्य ने कहा कि गाजियाबाद जहां अदब की राजधानी बनता जा रहा है, वहीं बारादरी भी अदब की दुनिया को समृद्ध बनाने में बड़ी भूमिका निभा रही है। अपने गीत, दोहे और शेरों पर उन्होंने भरपूर दाद बटोरते हुए फरमाया ‘पिंजरे से लड़ते हुए टूटे हैं जो पंख, यही बनेंगे आजादी के शंख।’ कार्यक्रम की मुख्य अतिथि अलीना इतरत ने अपने शेरों पर देर तक दाद बटोरी। उन्होंने कहा ‘गुल से खिलवाड़ कर रही थी हवा, दिल को तेरा ख्याल क्यों आया?’ ‘ ऐसा बदली ने क्या किया आखिर, सूरज इतना निढाल क्यों आया?’ ‘सूनी आंखों में क्या मिला तुमको, झील जैसा ख्याल क्यों आया?’ ‘इश्क तुमको नहीं हुआ तो कहो, शाइ’री में कमाल क्यूं आया?’
  नेहरू नगर स्थित सिल्वर लाइन प्रेस्टीज स्कूल में आयोजित “महफ़िल ए बारादरी’ को संबोधित करते हुए नरेश शांडिल्य ने कहा ‘हम भी औरों की तरह अगर रहेंगे मौन, जलते प्रश्नों के कहो उत्तर देगा कौन?’ ‘फोकट में कुछ भी नहीं हासिल किया हुजूर, खूब तपे हम आग में तब आया है नूर।’ ‘जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हजार, तब जाकर मैंने किए कागज काले चार।’ अलीना इतरत ने कहा ‘अभी तो चाक पर जारी है रक्स मिट्टी का, अभी तो कुम्हार की नीय्यत बदल भी सकती है।’ ‘ये आफताब से कह दो कि फासला रखे, तपिश से बर्फ की दीवार गल भी सकती है।’ बारादरी की संस्थापिका डॉ.माला कपूर ‘गौहर’ के अशआर भी खूब सरहे गए। उन्होंने फरमाया ‘हमने चश्म-ए-करम तो देख लिया, उनकी ज़ुल्फ़ों के ख़म भी देखेंगे’। ‘कल तबस्सुम था उसके होटों पर, लोग अब चश्म-ए-नम भी देखेंगे’। ‘मन की आंखों पे है चमक जिसकी, ऐसे ‘गौहर’ को हम भी देखेंगे।’
  मुम्बई से आए सिनेकर्मी और कवि रवि यादव ने अपने दोहों ‘शोर शराबे चीख़ते लज्जित बैठा मौन, शब्द तंत्र के राज में मौन सुनेगा कौन’? ‘उसने बोला अलविदा मैं बोला स्वीकार, ख़ामोशी से ढह गया बातूनी से प्यार।’ ‘कितने आकर चल बसे जग के ठेकेदार, पल भर भी ठहरी नहीं दुनिया की रफ़्तार’ पर जमकर दाद बटोरी। संस्था के अध्यक्ष गोविंद गुलशन ने कहा ‘क़तरे क़तरे में निहां दर्द का पैकर निकला, टूट कर आंख से फिर आज समंदर निकला।’ ‘जब भी तन्हा मैं हुआ हूं तो तसल्ली के लिए, मेरा साया ही मेरे जिस्म से बाहर निकला।’ ‘बढ़ गई और ज़्यादा मेरी आंखों में चमक, रात एक झील से जब चांद नहा कर निकला।’ शायर सुरेंद्र सिंघल के शेर ‘मेरे बचपन की गलियों में अब तक खिलौने बेचने आता है बूढ़ा, कभी बजाता है खुद पीपनी तो कभी मुझ से बजवाता है बूढ़ा।’ ‘आवारगी को तुम भी अपने गले लगाते, तुम भी अगर दरवाजे अपने घर के बंद पाते।’ मासूम ग़ाज़ियाबादी के‌ शेर भी सराहे गए। हिन्दी-उर्दू भाषा को मजहब के आधार पर बांटने की कोशिश करने वालों पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा ‘तेरे पांवों में कांटा अगर चुभ गया, सूर-तुलसी की आंखें भजन हो गईं। मेरी आंखों में आंसू अगर आ गए, आंख ख़ुसरू की गंगो-जमन हो गईं। आज हम दोनों अंधों का धन हो गईं, सबकी आंखों से सावन अलग हो गए…’। देवेन्द्र देव ने कहा ‘भारत में उपलब्ध हैं अद्भुत दुर्लभ लोग, घोड़े तरसें घास को हरि को छप्पन भोग।’
  कार्यक्रम का शुभारंभ सोनम यादव की सरस्वती वंदना से हुआ। कार्यक्रम का संचालन तरुणा मिश्रा ने किया। उनके शेर ‘किसी की आह से टकरा के खुल गईं आंखें, सदा ए दिल थी जिसे पा के खुल गईं आंखें, वो दस्तकें ही थीं ऐसी कि नींद उड़ जाए, यही हुआ भी कि घबरा के खुल गईं आंखें, उखड़ रहे थे मेरी क़ब्र के सभी पत्थर, अजीब ख़्वाब था घबरा के खुल गईं आखें’ भी खूब सराहे गए। प्रतिभा ‘प्रीत’ की ग़ज़ल के शेर ‘किसी के होते थे हम जाने जां पहले बहुत पहले, मुक़द्दर हमपे भी था मेहरबां पहले बहुत पहले, मेरे हमसाए को दरकार थी कुछ रौशनी मुझसे, सो मैंने फूंक डाला आशियां पहले बहुत पहले’ भी सराहे गए। सीताराम अग्रवाल ने कहा ‘कलम में तो अब भी बड़ा हौसला है, हमारे मनों में ही कर्फ्यू लगा है।’
वी. के. शेखर ने फ़रमाया ‘झुक कर इज्जत करने वाला, सच में कद्दावर होता है।’ मंजु कौशिक ने कहा ‘लाख बाधाएं खड़ी लेकिन मुझे झुकना नहीं है, मैं अंधेरी रात में दीपक जलाना चाहती हूं।’ सोनम यादव की गजल भी भरपूर सराही गई। उन्होंने कहा ‘हौसलों की उड़ानें हैं संगदिल बड़ी, गुरबतों में इन्हें आजमाया करो।’
  कविता में चित्रकारी सा प्रयोग करते हुए मंजु मन ने कहा ‘दूध में नहाया, बर्फ जैसी घुल रही हैं, सूरज की किरणें खुल रही हैं, भेड़ की ऊन  सा, गद्दे की बून सा, नरम-गरम बिस्तर सा, तम्बू सा तना इतरा रहा है, ये बादल देखो, कितने मजे से, सूरज की धूप खा रहा है…‌’। पूनम माटिया ने भी अपने शेरों पर वाहवाही बटोरते हुए कहा ‘ज़ख़्म जब दिल का छुपाना आ गया,
बेसबब भी मुस्कुराना आ गया।’ ममता लड़ीवाल ने अपने गीत के जरिए मौजूदा दौर की विसंगतियों पर चोट करते हुए कहा ‘गीत लिखते धर्म पर तुम, संस्कृति का ध्वज उठाए,
फिर तुम्हारे आचरण में इन गुणों का ह्रास क्यों है?’ इनके अलावा सुभाष चंदर, डॉ. राजीव कुमार पांडेय, तुलिका सेठ, इंद्रजीत सुकुमार, सुरेन्द्र शर्मा, अनिल शर्मा, इरा, सुजाता चौधरी, रूपा राजपूत, नित्यानंद तुषार, अनिमेष शर्मा, गार्गी कौशिक, अमित बेनाम, मधुकर मोनू त्यागी, डॉ. आरती बंसल आदि के गीत, गजल और कविताएं भी सराही गईं। इस अवसर पर आलोक यात्री, आभा बंसल, आर. के. मिश्रा, राजीव सिंघल, राकेश सेठ, अभिषेक सिंघल, अक्षयवरनाथ श्रीवास्तव, निरंजन शर्मा, शकील अहमद, अनुपमा गांधी, डी. के. गांधी, वागीश शर्मा, संजीव अग्रवाल, आशीष ओसवाल, तिलक राज अरोड़ा, अमित श्रीवास्तव, देवनाथ, मंजू कौशिक, प्रदीप पंडित सहित बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी मौजूद थे।